गर्मी ने अप्रैल के मध्य में ही अपना प्रकोप दिखाना शुरू कर दिया है। प्रदेश के प्रमुख जलाशयों और बांधों का जलस्तर तेजी से गिर रहा है, जिससे मई और जून के लिए जल संकट के गहराने की आशंका जताई जा रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग, कम बारिश, जलसंसाधनों का अनियंत्रित दोहन, जंगलों की अंधाधुंध कटाई और वर्षा जल का सही संरक्षण नहीं होना इस संकट के मुख्य कारण हैं।

गंगरेल बांध – प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा बांध गंगरेल वर्तमान में केवल 44.17% भराव के साथ संचालित हो रहा है। इसमें अभी कुल 17.033 टीएमसी पानी है, जिसमें से केवल 11.962 टीएमसी उपयोग योग्य है। 15 मार्च से आसपास के जिलों में पानी सप्लाई किया जा रहा है, लेकिन सिंचाई के लिए इस साल पानी नहीं दिया गया है।

तांदुला जलाशय – दुर्ग संभाग का यह प्रमुख जलाशय केवल 29.54% जलभराव के साथ चल रहा है, जो पिछले वर्ष की तुलना में कम है। इसी तरह खरखरा जलाशय में 28.31%, सरोदा डैम में 53%, पिपरिया नाले में 59.79%, और मरोदा डैम में 33% पानी शेष है।

घुनघुट्टा बांध – अंबिकापुर को पानी सप्लाई करने वाला यह डेम 62.05 एमसीएम की क्षमता के मुकाबले वर्तमान में केवल 28.5 एमसीएम यानी 46% जल के साथ बचा है।

बस्तर में सबसे खराब हालात – बस्तर के कोसारटेडा जलाशय में पिछले पांच वर्षों में सबसे कम पानी है। वर्तमान में इसमें मात्र 15.07 क्यूबिक मीटर जल है, जबकि पिछले वर्ष यही आंकड़ा 29.21 था।

बिलासपुर संभाग – अरपा भैंसाझार जलाशय में इस समय 39%, घोंघा जलाशय में 38% और खूंटाघाट जलाशय में मात्र 37.78% पानी शेष है। पिछले वर्ष की तुलना में ये आंकड़े काफी नीचे हैं।

गौरतलब है कि देश के कई ग्रामीण इलाकों में महिलाएं अपने सिर पर उतना पानी ढोती हैं, जितना एयरलाइंस में एक यात्री को ले जाने की अनुमति नहीं होती। वहीं, उत्तराखंड की नैनी झील जैसी प्रसिद्ध मीठे पानी की झीलें भी अब सूखने लगी हैं, जिसे विशेषज्ञ ग्लोबल वार्मिंग का परिणाम बता रहे हैं।

इस जल संकट को हर वर्ष नजरअंदाज किया जाता है, लेकिन अब वक्त आ गया है कि जलसंचय, वनीकरण और टिकाऊ जल नीति पर गंभीरता से काम किया जाए, ताकि आने वाले समय में हालातऔर न बिगड़ें।