छत्तीसगढ़ में किसानों की समस्याएं हर साल चर्चा का विषय बनती हैं, लेकिन समाधान की दिशा में कोई ठोस पहल अब तक नजर नहीं आई है। खासकर, जब बात खेती के सीजन की होती है, तब खाद और बीज की किल्लत जैसे मुद्दे फिर से सामने आ जाते हैं। इस बार भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। खरीफ सीजन 2025 शुरू होने से पहले प्रदेश में खाद की भारी कमी देखने को मिल रही है। सहकारिता विभाग ने 10.72 लाख मीट्रिक टन खाद का लक्ष्य तय किया है, लेकिन अब तक केवल 4.10 लाख मीट्रिक टन का ही भंडारण हो पाया है, जो लक्ष्य का महज 38.23 प्रतिशत है।
इस बार सबसे ज्यादा परेशानी डीएपी खाद की कमी को लेकर हो रही है। किसान मजबूरी में महंगे दामों पर बाजार से खाद खरीदने को मजबूर हैं। इस स्थिति ने विपक्ष को सरकार के खिलाफ बोलने का मौका दे दिया है। विपक्ष जोरशोर से किसानों की समस्याएं उठा रहा है, लेकिन सवाल यह है कि सत्ता में रहते समय यही दल किसानों के लिए कितने संवेदनशील थे?
दरअसल, छत्तीसगढ़ की राजनीति में किसानों का मुद्दा हमेशा से अहम रहा है। पिछले दो विधानसभा चुनावों में भी किसान फैक्टर निर्णायक रहा। चुनावी घोषणाओं में किसानों के हितों की बात जोर-शोर से कही जाती है, लेकिन सत्ता में आने के बाद वही वादे अक्सर कागजों में सिमट जाते हैं।
राजनीतिक दलों की किसानों को लेकर सोच में एक पैटर्न साफ दिखता है — जब तक विपक्ष में रहते हैं, तब तक किसान हितैषी दिखाई देते हैं, लेकिन सत्ता में आते ही प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। किसानों की समस्याएं बैठकों और भाषणों तक सीमित रह जाती हैं। लालफीताशाही के कारण योजनाएं जमीन पर उतरने से पहले ही दम तोड़ देती हैं।
हर साल खाद-बीज की किल्लत किसानों के सामने आती है, और हर साल इसे लेकर सियासत गर्म हो जाती है। लेकिन इस बार किसानों को सिर्फ इंतजार नहीं करना चाहिए। उन्हें खुद अपनी आवाज बुलंद करनी होगी और इस बात को समझना होगा कि वे सिर्फ ‘अन्नदाता’ नहीं, बल्कि ‘वोटदाता’ भी हैं — और उनके वोट की ताकत से सत्ता तय होती है।
अब समय आ गया है कि किसान अपनी राजनीतिक समझदारी दिखाएं, ताकि हर बार उनके हिस्से में सिर्फ वादे और समस्याएं न आएं, बल्कि वे भी नीति निर्धारण की प्रक्रिया में सशक्त भागीदार बन सकें।